उस तरफ क्या है, एक लम्बा मौन , गहरी चुप्पी , समुद्र सी गंभीरता,
या भीषण हाहाकार, एक आर्तनाद , उत्तंग लहरें
इस का अन्त कहाँ हैं, आल्हाद् की विपुलता में, चरम सुख में, परमानन्द में ,
या तनावपूर्ण शून्यता गहन नीरव अंधकार और अपेक्षा में
क्यों चल रहे हो उस राह पे , यह तो सोचो कि तुम क्या खो के क्या पा रहे हो
यह श्वास और स्पन्दन , यह धुटन और क्रन्दन
सहज क्या है , स्वभाव क्या है अस्तित्व का अहं या पद वैभव का वहम्
काल चक्र की निरन्तरता क्यों तुम्हें अभिभूत नही करती
प्रारब्ध हो या संचित कर्म-फल आखिर भोक्ता तो तुम हो ........
सर्ष्टा नहीं , सृजन तो हो ,
क्या होना अधिक निरापद है , सूक्ष्म या विशाल
भय का उद्भव अज्ञान है या संस्कार ,
और अज्ञान भी क्या है सर्प -रज्जु भ्रम विकार ग्रस्त चित्त , माया का प्रति रोपण
अर्थ लाभ आखिर लाभ है या हानि ।
शंकालु चित्त चित्तवृत्तियों का सम्मोहन , दुराभिलाषा ,
लोभ जो पाप का मूल है
और फिर परिणति क्या है दासता स्वयं अपनी ही इन्द्रियों की ........
एक दौड़ है खोज की , जिसे खोजना है वो बाहर नही , भीतर है भूत , भविष्य और वर्तमान से परे -
या भीषण हाहाकार, एक आर्तनाद , उत्तंग लहरें
इस का अन्त कहाँ हैं, आल्हाद् की विपुलता में, चरम सुख में, परमानन्द में ,
या तनावपूर्ण शून्यता गहन नीरव अंधकार और अपेक्षा में
क्यों चल रहे हो उस राह पे , यह तो सोचो कि तुम क्या खो के क्या पा रहे हो
यह श्वास और स्पन्दन , यह धुटन और क्रन्दन
सहज क्या है , स्वभाव क्या है अस्तित्व का अहं या पद वैभव का वहम्
काल चक्र की निरन्तरता क्यों तुम्हें अभिभूत नही करती
प्रारब्ध हो या संचित कर्म-फल आखिर भोक्ता तो तुम हो ........
सर्ष्टा नहीं , सृजन तो हो ,
क्या होना अधिक निरापद है , सूक्ष्म या विशाल
भय का उद्भव अज्ञान है या संस्कार ,
और अज्ञान भी क्या है सर्प -रज्जु भ्रम विकार ग्रस्त चित्त , माया का प्रति रोपण
अर्थ लाभ आखिर लाभ है या हानि ।
शंकालु चित्त चित्तवृत्तियों का सम्मोहन , दुराभिलाषा ,
लोभ जो पाप का मूल है
और फिर परिणति क्या है दासता स्वयं अपनी ही इन्द्रियों की ........
एक दौड़ है खोज की , जिसे खोजना है वो बाहर नही , भीतर है भूत , भविष्य और वर्तमान से परे -
आध्यात्मिकता लिए .. सुन्दर रचना ...
जवाब देंहटाएंI like it...
जवाब देंहटाएंrishabhprakash.blogspot.in
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