छाँव का सकून
मृग-मरीचिका बन छलता रहा
तेज धूप का सफ़र यूँ ही चलता रहा
राहबर भी सभी किनारा कर गए
कद अपने ही साये का भी घटता रहा
इस तपिश में कौन सी वो कशिश है
क्या सोच कर ये फूल इस बंजर में खिलता रहा
कदम दो कदम तुम जब भी चले
होंसला इस सफ़र को तय करने का मिलता रहा
:))
गुरुवार, 17 सितंबर 2009
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क्या सोच कर ये फूल इस बंजर में खिलता रहा
जवाब देंहटाएंवाह ! बहुत खूब
बहुत ही सुंदर भाव और अभिव्यक्ति के साथ लिखी हुई आपकी ये शानदार रचना काबिले तारीफ है! बहुत बढ़िया लगा!
जवाब देंहटाएं"कदम दो कदम तुम जब भी चले
जवाब देंहटाएंहोंसला इस सफ़र को तय करने का मिलता रहा"
सफर का आपने बहुत सुन्दर चित्रण किया है।
बधाई!
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंkya soch kar............safar ka bahut hi sundar chitran. bahut bahut badhai.
जवाब देंहटाएं"छाँव का सकून
जवाब देंहटाएंमृग-मरीचिका बन छलता रहा
तेज धूप का सफ़र यूँ ही चलता रहा "
इन शब्दों में आपने बड़ी ही गहरी बात कह दी है.
क्या सोच कर ये फूल इस बंजर में खिलता रहा
जवाब देंहटाएंbahut khoob..
क्या सोच कर ये फूल इस बंजर में खिलता रहा
जवाब देंहटाएंकदम दो कदम तुम जब भी चले
होंसला इस सफ़र को तय करने का मिलता रहा .
bahut khoob hai ye baaten .