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मंगलवार, 20 अक्तूबर 2009

अपने हिस्से का सूरज

 मैंने तुमसे मुठ्ठी भर प्रकाश माँगा था
और बदले तुम मेरे अन्धेरों पे  
सुहानुभुती मैं दो शब्द बोलने लगे  
अच्छा तो नहीं लगा  
पर फिर भी मैंने कृतज्ञता प्रगट की  
और मैं कर भी क्या सकता था  
तुम्हें अपना समझ के कुछ मागाँ था  
गैरों के आगे भला कैसे हाथ फैलाता 
मेरा फैला हुआ हाथ लौटता  
इससे पहले वहाँ अजनबियों की एक भीड़ लग गयी  
सब अपने हिस्से का सूरज मुझे दे देना चाहते थे  
पर मैंने अपना हाथ खींच लिया  
उनसे किस मुहँ से कुछ लेता  
आज तक तो अपना सब कुछ तुमको देता आया था








सोमवार, 12 अक्तूबर 2009

यत्रांणा से मुक्त कर दो

यत्रांणा से मुक्त कर दो  
रिक्तता मुझको निगल ले  
इससे पहले उस दिशा में 
प्रस्थान कर दो  
व्योम सा व्यापक नहीं हूँ मैं  
ना समुद्र सी गहराई मुझ में  
मैं तो दीर्ध निश्वासों की कड़ी हूँ 
मुझ में अविकल प्राण भर दो  
यंत्राणा से मुक्त कर दो  
अक्षरों की तिक्तता से जल उठा हूँ  
छिन्न संकल्पों को समेटे 
कब से खड़ा हूं 
मौन का सम्मोहन 
हर कोशिका मैं व्याप्त् है 
तुम मन को स्पन्दन से भर दो  
मुझको यंत्राणा से मुक्त कर दो


शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2009

में ऐसा एक गीत लिखूगां

मेरे जीवन की सांझ ढले  
इससे पहले तुम आ जाना  
मैं एक पूरा गीत लिखुंगा  
जिसमें मेरे कुछ स्वपन अधूरों का  
जिसमें मेरे कुछ गीत अधूरों का 
जिक्र न होगा 
मैं ऐसा एक गीत लिखूगां 
मेरे जीवन की ......... 
जिसमें तुमसे मेरी चाहत का  
तुमको पा लेने की राहत का  
अहसास तुम्हें भी होगा  
में ऐसा एक गीत लिखूगां 
तेरे आने की आहट को  
मैं अपनी व्याकुलता को  
शब्दों में कैसे बाधुगाँ 
मौन अव्यक्त भाव हों जिसमें  
मैं एक ऐसा गीत लिखुगां 
मेरी जीवन की ....... 
जब मैं पूर्ण हो जाऊगाँ  
तब पूर्ण सृजक हो जाऊगाँ  
तुम मेरी परीचायक हो  
वह गीत तुम्हारा परीचायक होगा  
ऐसा मैं एक गीत लिखुगां ..............




:))

शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2009

जिंदगी का उलाहना

जिंदगी मुझको उलाहना दे रही है  
कुछ घाव जो पाले थे मैंने अपनों की तरह 
दर्द वो अब देते नहीं बेगानों की तरह  
किस तरह होगी बसर कुछ समझ आता नहीं  
पर जिंदगी का उलाहना भी तो भाता नहीं  
राह के हर पत्ते पर तेरा नाम लिख कर 
स्याह रातों में अक्सर चिल्लाया तेरा नाम लेकर  
आस की भी उम्र अब तो ढल चुकी है  
जिंदगी अब खुद उलाहना बन चुकी है


:)