और बदले तुम मेरे अन्धेरों पे
सुहानुभुती मैं दो शब्द बोलने लगे
अच्छा तो नहीं लगा
पर फिर भी मैंने कृतज्ञता प्रगट की
और मैं कर भी क्या सकता था
तुम्हें अपना समझ के कुछ मागाँ था
गैरों के आगे भला कैसे हाथ फैलाता
मेरा फैला हुआ हाथ लौटता
इससे पहले वहाँ अजनबियों की एक भीड़ लग गयी
सब अपने हिस्से का सूरज मुझे दे देना चाहते थे
पर मैंने अपना हाथ खींच लिया
उनसे किस मुहँ से कुछ लेता
आज तक तो अपना सब कुछ तुमको देता आया था