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बुधवार, 23 सितंबर 2009

मैं इसी शहर में हूँ

मुझ से ग्लानि का बोझ सहा ना जाएगा  
तुम मुझे कभी `मसीहा´ मत कहना  
मैं भीड़ में खड़ा होकर चिल्ला लुँगा 
मुझे मंच पर आने को मत कहना  
इस यंत्राणा में भी मैं मुस्करा लेता हूँ 
मुझे कहकहा लगाने को मत कहना  
उनके जज्बातों को ठेस बहुत पहुँचेगी  
मैं इसी शहर में हूँ उनसे मत कहना


सोमवार, 21 सितंबर 2009

क्यों भूल जाऊँ मैं

स्मृति के दंश, पीड़ा ,छटपटाहट
और तुम्हारा खिलखिलाना
काश भूल जाऊँ मैं
अनभिज्ञता, उपहास , ग्लानि बोध
और तुम्हारा मुझसे नज़रें चुराना
काश भूल जाऊँ मैं
दु:स्साहस , आलोचनाएं , आत्म प्रवंचना
और तुम्हारा शर्म से झुका सिर
काश भूल जाऊँ मैं
बस याद रहे
वो शाम का धुँघलका
गाँव की पगडंडी पर
गाय बकरियों के धर लौटते झुँड
उनके खुर से उड़ी घूल के बीच
तुम्हारा मुझसे टकराना
और आँचल के छोर को ,
दाँतों में दबाकर सकुचाना शरमाना
क्यों भूल जाऊँ मैं
स्पर्धाएँ , चुनौतियाँ , जयमाला
और तुम्हारे गर्व से दिपदिपाना
क्यों भूल जाऊँ मैं
ज्ञान , वैभव , सम्मान चारों दिक्
और तुम्हारा सहज समर्पण
क्यों भूल जाऊँ मैं
विरह वेदना, प्यार की अग्नि परीक्षा
और तुम्हारा खरा उतरना
क्यों भूल जाऊँ मैं


शनिवार, 19 सितंबर 2009

छोटी सी बात

छोटी सी बात का अफसाना बना दिया  
अपना था तुम्हारा, बेगाना बना दिया  
अधेंरे में पल रहा था सपनों का भ्रम  
रोशनी ने उनको पागल बना दिया  
उम्र बहुत लम्बी है पर समय बहुत कम  
आकाश को आंकाक्षाओं की सीमा बना दिया  
रूक तो मैं जाता पर मंजिल थी बहुत दूर  
एक हमसफर ने मुझको अपना बना लिया  
शुक्रिया तो दे दो रूखसती से पहले  
एक लम्हें से तुमने जीवन चुरा लिया






:)

गुरुवार, 17 सितंबर 2009

तेज धूप का सफ़र

छाँव का सकून 
मृग-मरीचिका बन छलता रहा 
तेज धूप का सफ़र यूँ ही चलता रहा 
राहबर भी सभी किनारा कर गए 
कद अपने ही साये का भी घटता रहा 
इस तपिश में कौन सी वो कशिश  है 
क्या सोच कर ये फूल इस बंजर में खिलता रहा 
कदम दो कदम तुम जब भी चले 
होंसला इस सफ़र को तय करने का मिलता रहा 






:))

मंगलवार, 15 सितंबर 2009

उसकी क्या खता है

खुद ही से पूछ कर हँसता है रोता है 
क्या कोई शख्स इतना भी तन्हॉ होता है 
पेड़ की डाली को समझ कर बाजू 
हौले से छूता है कस के पकड़ता है 
रोक कर राह चलते से पूछता है साथ दोगे 
मायूस चेहरा लिये खाली आखों से तकता है 
बिछे है कालीन और गुदाज गद्दे भी  
रातभर फिर भी वो करवटें बदलता है  
चलो छोड़ो दूसरों को तुम्ही बताओं  
क्यों मुहँ मोड़ लिया उसकी क्या खता है

शनिवार, 12 सितंबर 2009

ऐसा सिर्फ मेरे साथ क्यों होता है

ऐसा सिर्फ वृक्षों के साथ क्यों होता है  
कि वो अचानक पर्णविहिन हो 
फूलों से लद लाते है  
अपनी सार्थकता का अहसास 
कितना भला लगता होगा उन्हें 
जब हमारी आँखें 
बरबस ही उन पर ठहर जाती हैं 
ऐसा सिर्फ बहुत ऊँचें पर्वतों के साथ क्यों होता है  
कि श्याम -धवल बादलों के झुँड़ 
उसकी देह से लिपट जाते है  
अपनी ही विशालता का अहसास भी मधुर हो जाता है  
जब छोटी सी बदली व्याकुल हो बरस जाती है 
ऐसा सिर्फ मेरे साथ क्यों होता है  
कि आँखें हमेशा नंगे वृक्षों को तलाश करती है 
पहाड़ की उँचाइयों पर खड़े होकर 
महासागर की गहराइयाँ याद आती है 
बहुत थक जाने पर भी 
कुछ और चलने का आग्रह 
ठुकरा नहीं पाता  
ऐसा सिर्फ मेरे साथ क्यों होता है 
ऐसा सिर्फ तुम्हारे साथ क्यों होता है  
कि तुम वृक्ष ,पर्वत और मुझे 
एक ही दृष्टि से देखती हो  
मेरी जड़ता को अपनी चेतना से 
सारोबार कर देना चाहती हो  
ऐसा सिर्फ तुम्हारे साथ क्यों होता है








:)

बुधवार, 9 सितंबर 2009

अब तो रूक के देख लो

अब तो रूक के देख लो फांसला जो तय किया  
किससे तुमने क्या लिया , किसको तुमने क्या दिया 
चले कुछ दूर फिर भी , आज तक जो साथ है 
और साथ चल कर भी आज तक जो दूर हैं 
उस प्यार पर अधिकार था , और वह अहसान था 
फिर भी उसका बदला हमने एक सा ही क्यों दिया  
हैं दुआऐं कुछ साथ तो बददुआ भी कम नहीं  
गिरने और सभंलने का सिलसिला यूँ चलता रहा  
भला जिनका किया वो आज जिक्र तक करते नहीं 
और बुरा होने पर थू थू हर जगह उसने किया  
सूख गया हर सब्ज रिश्ता अब उलाहना भी मिलता नहीं  
एक पत्र इजहार का वक्त पर जो तुमने दिया नहीं




:)

सोमवार, 7 सितंबर 2009

एक दिन

एक दिन सुबह
सूरज नहीं उगा
हम बिस्तरों में कसमसाते हुए
उसके उगने का इन्तजार करने लगे
पर वह नहीं उगा ।
घीरे -घीरे हमारी बैचेनी बढ़ने लगी
अँधेरे आँखों को चुभने लगे
हम भाग कर सड़कों पर आ गये
हजारों की तादाद में लोग भाग रहे थे
चीख रहे थे
सूरज के उगने की प्रार्थना कर रहे थे
उस समय कुछ अन्धे
एक तरफ खडे़ मुस्करा रहे थे
उन्हें मालूम था
गलत राह पर चलते लोगों को सजा देने
सूरज भी गलत राह पर चला गया है
एक दिन आकाश में लगे तारों के पैबन्द
जगह -जगह से उखड़ गये
लाल -पीले मवादी खून की धाराऐं
सड़कों गलियों बाजारों में गिरने लगी
हमने नाक- भौं सिकोड़े
खिड़की दरवाजे बन्द कर लिये
इस समय कुछ इंसानी केकडे़
घरों से बाहर आकर खड़े मुस्करा रहे थे
क्यों कि उन्हें मालूम था
कि बिल्ली के भाग्य से
छीकें टूटते ही रहते हैं
एक दिन हमारे कद अचानक बढ़ने लगे
यहाँ तक कि हम अपने शहर की
सबसे ऊँची इमारत में
झाँक कर देख सकते थे
शायद यह हमारी बरसों पुरानी
झाँकने की आदत का परिणाम था
हम खुश थे झाँकने की सहूलियत पाकर
पर बहुत भीतर कोई एक दु:खी था
जिसे अपने में झाँकने की आदत थी