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मंगलवार, 3 नवंबर 2009

बन्द दरवाजों का नहीं अफसोस

बन्द दरवाजों का नहीं अफसोस मुझे  
खोल दो खिड़कियाँ की दम धुटता है  
आह तुमने न सुनी तो न सही  
चीखँ पर तो अजनबी भी पलटता है  
राह उनको दिखाता है फिसलन कि  
और हँसता है जब कोई फिसलता है  
वो कह रहा था मुझसे कि बन दरियादिल  
आँख में अपनी उनकों, तिनका भी खटकता है




:)


मंगलवार, 20 अक्तूबर 2009

अपने हिस्से का सूरज

 मैंने तुमसे मुठ्ठी भर प्रकाश माँगा था
और बदले तुम मेरे अन्धेरों पे  
सुहानुभुती मैं दो शब्द बोलने लगे  
अच्छा तो नहीं लगा  
पर फिर भी मैंने कृतज्ञता प्रगट की  
और मैं कर भी क्या सकता था  
तुम्हें अपना समझ के कुछ मागाँ था  
गैरों के आगे भला कैसे हाथ फैलाता 
मेरा फैला हुआ हाथ लौटता  
इससे पहले वहाँ अजनबियों की एक भीड़ लग गयी  
सब अपने हिस्से का सूरज मुझे दे देना चाहते थे  
पर मैंने अपना हाथ खींच लिया  
उनसे किस मुहँ से कुछ लेता  
आज तक तो अपना सब कुछ तुमको देता आया था








सोमवार, 12 अक्तूबर 2009

यत्रांणा से मुक्त कर दो

यत्रांणा से मुक्त कर दो  
रिक्तता मुझको निगल ले  
इससे पहले उस दिशा में 
प्रस्थान कर दो  
व्योम सा व्यापक नहीं हूँ मैं  
ना समुद्र सी गहराई मुझ में  
मैं तो दीर्ध निश्वासों की कड़ी हूँ 
मुझ में अविकल प्राण भर दो  
यंत्राणा से मुक्त कर दो  
अक्षरों की तिक्तता से जल उठा हूँ  
छिन्न संकल्पों को समेटे 
कब से खड़ा हूं 
मौन का सम्मोहन 
हर कोशिका मैं व्याप्त् है 
तुम मन को स्पन्दन से भर दो  
मुझको यंत्राणा से मुक्त कर दो


शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2009

में ऐसा एक गीत लिखूगां

मेरे जीवन की सांझ ढले  
इससे पहले तुम आ जाना  
मैं एक पूरा गीत लिखुंगा  
जिसमें मेरे कुछ स्वपन अधूरों का  
जिसमें मेरे कुछ गीत अधूरों का 
जिक्र न होगा 
मैं ऐसा एक गीत लिखूगां 
मेरे जीवन की ......... 
जिसमें तुमसे मेरी चाहत का  
तुमको पा लेने की राहत का  
अहसास तुम्हें भी होगा  
में ऐसा एक गीत लिखूगां 
तेरे आने की आहट को  
मैं अपनी व्याकुलता को  
शब्दों में कैसे बाधुगाँ 
मौन अव्यक्त भाव हों जिसमें  
मैं एक ऐसा गीत लिखुगां 
मेरी जीवन की ....... 
जब मैं पूर्ण हो जाऊगाँ  
तब पूर्ण सृजक हो जाऊगाँ  
तुम मेरी परीचायक हो  
वह गीत तुम्हारा परीचायक होगा  
ऐसा मैं एक गीत लिखुगां ..............




:))

शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2009

जिंदगी का उलाहना

जिंदगी मुझको उलाहना दे रही है  
कुछ घाव जो पाले थे मैंने अपनों की तरह 
दर्द वो अब देते नहीं बेगानों की तरह  
किस तरह होगी बसर कुछ समझ आता नहीं  
पर जिंदगी का उलाहना भी तो भाता नहीं  
राह के हर पत्ते पर तेरा नाम लिख कर 
स्याह रातों में अक्सर चिल्लाया तेरा नाम लेकर  
आस की भी उम्र अब तो ढल चुकी है  
जिंदगी अब खुद उलाहना बन चुकी है


:)

बुधवार, 23 सितंबर 2009

मैं इसी शहर में हूँ

मुझ से ग्लानि का बोझ सहा ना जाएगा  
तुम मुझे कभी `मसीहा´ मत कहना  
मैं भीड़ में खड़ा होकर चिल्ला लुँगा 
मुझे मंच पर आने को मत कहना  
इस यंत्राणा में भी मैं मुस्करा लेता हूँ 
मुझे कहकहा लगाने को मत कहना  
उनके जज्बातों को ठेस बहुत पहुँचेगी  
मैं इसी शहर में हूँ उनसे मत कहना


सोमवार, 21 सितंबर 2009

क्यों भूल जाऊँ मैं

स्मृति के दंश, पीड़ा ,छटपटाहट
और तुम्हारा खिलखिलाना
काश भूल जाऊँ मैं
अनभिज्ञता, उपहास , ग्लानि बोध
और तुम्हारा मुझसे नज़रें चुराना
काश भूल जाऊँ मैं
दु:स्साहस , आलोचनाएं , आत्म प्रवंचना
और तुम्हारा शर्म से झुका सिर
काश भूल जाऊँ मैं
बस याद रहे
वो शाम का धुँघलका
गाँव की पगडंडी पर
गाय बकरियों के धर लौटते झुँड
उनके खुर से उड़ी घूल के बीच
तुम्हारा मुझसे टकराना
और आँचल के छोर को ,
दाँतों में दबाकर सकुचाना शरमाना
क्यों भूल जाऊँ मैं
स्पर्धाएँ , चुनौतियाँ , जयमाला
और तुम्हारे गर्व से दिपदिपाना
क्यों भूल जाऊँ मैं
ज्ञान , वैभव , सम्मान चारों दिक्
और तुम्हारा सहज समर्पण
क्यों भूल जाऊँ मैं
विरह वेदना, प्यार की अग्नि परीक्षा
और तुम्हारा खरा उतरना
क्यों भूल जाऊँ मैं


शनिवार, 19 सितंबर 2009

छोटी सी बात

छोटी सी बात का अफसाना बना दिया  
अपना था तुम्हारा, बेगाना बना दिया  
अधेंरे में पल रहा था सपनों का भ्रम  
रोशनी ने उनको पागल बना दिया  
उम्र बहुत लम्बी है पर समय बहुत कम  
आकाश को आंकाक्षाओं की सीमा बना दिया  
रूक तो मैं जाता पर मंजिल थी बहुत दूर  
एक हमसफर ने मुझको अपना बना लिया  
शुक्रिया तो दे दो रूखसती से पहले  
एक लम्हें से तुमने जीवन चुरा लिया






:)

गुरुवार, 17 सितंबर 2009

तेज धूप का सफ़र

छाँव का सकून 
मृग-मरीचिका बन छलता रहा 
तेज धूप का सफ़र यूँ ही चलता रहा 
राहबर भी सभी किनारा कर गए 
कद अपने ही साये का भी घटता रहा 
इस तपिश में कौन सी वो कशिश  है 
क्या सोच कर ये फूल इस बंजर में खिलता रहा 
कदम दो कदम तुम जब भी चले 
होंसला इस सफ़र को तय करने का मिलता रहा 






:))

मंगलवार, 15 सितंबर 2009

उसकी क्या खता है

खुद ही से पूछ कर हँसता है रोता है 
क्या कोई शख्स इतना भी तन्हॉ होता है 
पेड़ की डाली को समझ कर बाजू 
हौले से छूता है कस के पकड़ता है 
रोक कर राह चलते से पूछता है साथ दोगे 
मायूस चेहरा लिये खाली आखों से तकता है 
बिछे है कालीन और गुदाज गद्दे भी  
रातभर फिर भी वो करवटें बदलता है  
चलो छोड़ो दूसरों को तुम्ही बताओं  
क्यों मुहँ मोड़ लिया उसकी क्या खता है

शनिवार, 12 सितंबर 2009

ऐसा सिर्फ मेरे साथ क्यों होता है

ऐसा सिर्फ वृक्षों के साथ क्यों होता है  
कि वो अचानक पर्णविहिन हो 
फूलों से लद लाते है  
अपनी सार्थकता का अहसास 
कितना भला लगता होगा उन्हें 
जब हमारी आँखें 
बरबस ही उन पर ठहर जाती हैं 
ऐसा सिर्फ बहुत ऊँचें पर्वतों के साथ क्यों होता है  
कि श्याम -धवल बादलों के झुँड़ 
उसकी देह से लिपट जाते है  
अपनी ही विशालता का अहसास भी मधुर हो जाता है  
जब छोटी सी बदली व्याकुल हो बरस जाती है 
ऐसा सिर्फ मेरे साथ क्यों होता है  
कि आँखें हमेशा नंगे वृक्षों को तलाश करती है 
पहाड़ की उँचाइयों पर खड़े होकर 
महासागर की गहराइयाँ याद आती है 
बहुत थक जाने पर भी 
कुछ और चलने का आग्रह 
ठुकरा नहीं पाता  
ऐसा सिर्फ मेरे साथ क्यों होता है 
ऐसा सिर्फ तुम्हारे साथ क्यों होता है  
कि तुम वृक्ष ,पर्वत और मुझे 
एक ही दृष्टि से देखती हो  
मेरी जड़ता को अपनी चेतना से 
सारोबार कर देना चाहती हो  
ऐसा सिर्फ तुम्हारे साथ क्यों होता है








:)

बुधवार, 9 सितंबर 2009

अब तो रूक के देख लो

अब तो रूक के देख लो फांसला जो तय किया  
किससे तुमने क्या लिया , किसको तुमने क्या दिया 
चले कुछ दूर फिर भी , आज तक जो साथ है 
और साथ चल कर भी आज तक जो दूर हैं 
उस प्यार पर अधिकार था , और वह अहसान था 
फिर भी उसका बदला हमने एक सा ही क्यों दिया  
हैं दुआऐं कुछ साथ तो बददुआ भी कम नहीं  
गिरने और सभंलने का सिलसिला यूँ चलता रहा  
भला जिनका किया वो आज जिक्र तक करते नहीं 
और बुरा होने पर थू थू हर जगह उसने किया  
सूख गया हर सब्ज रिश्ता अब उलाहना भी मिलता नहीं  
एक पत्र इजहार का वक्त पर जो तुमने दिया नहीं




:)

सोमवार, 7 सितंबर 2009

एक दिन

एक दिन सुबह
सूरज नहीं उगा
हम बिस्तरों में कसमसाते हुए
उसके उगने का इन्तजार करने लगे
पर वह नहीं उगा ।
घीरे -घीरे हमारी बैचेनी बढ़ने लगी
अँधेरे आँखों को चुभने लगे
हम भाग कर सड़कों पर आ गये
हजारों की तादाद में लोग भाग रहे थे
चीख रहे थे
सूरज के उगने की प्रार्थना कर रहे थे
उस समय कुछ अन्धे
एक तरफ खडे़ मुस्करा रहे थे
उन्हें मालूम था
गलत राह पर चलते लोगों को सजा देने
सूरज भी गलत राह पर चला गया है
एक दिन आकाश में लगे तारों के पैबन्द
जगह -जगह से उखड़ गये
लाल -पीले मवादी खून की धाराऐं
सड़कों गलियों बाजारों में गिरने लगी
हमने नाक- भौं सिकोड़े
खिड़की दरवाजे बन्द कर लिये
इस समय कुछ इंसानी केकडे़
घरों से बाहर आकर खड़े मुस्करा रहे थे
क्यों कि उन्हें मालूम था
कि बिल्ली के भाग्य से
छीकें टूटते ही रहते हैं
एक दिन हमारे कद अचानक बढ़ने लगे
यहाँ तक कि हम अपने शहर की
सबसे ऊँची इमारत में
झाँक कर देख सकते थे
शायद यह हमारी बरसों पुरानी
झाँकने की आदत का परिणाम था
हम खुश थे झाँकने की सहूलियत पाकर
पर बहुत भीतर कोई एक दु:खी था
जिसे अपने में झाँकने की आदत थी

शनिवार, 29 अगस्त 2009

तुम मेरी क्या हो

मैं आज बेसाख्ता मैं अपने से पूँछ बैठा
कि तुम मेरी क्या हो
मेरा दिल का सकून
मेरी आखों की नींद
मेरी जुबाँ पर हर वक्त तेरा जिक्र
कानों में गूँजती तेरी हँसी
तेरे कदमों की आहट
तेरी किसी बात को याद करके मुस्करा जाना
और फिर निगाहों का दूर कहीं खो जाना
कभी तेरी जहीनयत् पर फख्र
कभी तेरे गुदाज जिस्म की याद
जुदाई के लम्हों का ये इतना लम्बा सफर
दिलो दिमाग पर एक धुन्ध सी छायी है
मेरे जेहन में तू सिर्फ तू समाई है
तूने मेरे दोनों जहाँ आबाद किये हैं
तेरी आखों में जलते उम्मीदों के चिरागों ने
मुझे मंजिल दिखायी है
मेरी हम सफर ही नहीं हम ख्याल भी है तू
मेरे जीने का सबब और मेरा निर्वाण है तू


:)

बुधवार, 26 अगस्त 2009

भीत कपोत


मौन क्लान्त विश्रान्त
तरू ये भीगे - भीगे
लम्बी सड़कों का
दूर कहीं पर खो जाना
तूफानों का दो हाथों के मध्य गुजरना
कदमों का बरबस ही थमना , चलना
फिर थमना
अंगारों को मुठ्ठी में लेना और झुलसना
पीड़ा को स्वर न देना पर बिलखना
ताका करता है
आखों में बैठा
एक भीत कपोत







:)

मंगलवार, 25 अगस्त 2009

लौट के ना आ जाना



बहुत भीड़ है कहीं भी खो जाना
तुम कहीं लौट के ना आ जाना
मुसाफिर हूँ मुश्किल है कहीं पर रूक जाना
ढूंढोगे जहॉ छोड़ा था तो मुश्किल है पा जाना
तुम कहीं ......................
भूला के कल को मैने आज इतना से है जाना
मैं न याद रख पाऊगा
तुम्हारा मुस्कराना, सकुचाना, खिलखिलाना
तुम कहीं लौट के ना आ जाना
ये दुनिया तूम्हें लाख समझाए
पर कभी दिल की बातों में मत आना
तुम कहीं .............................
कुछ कदम ऐसे ही होते है
जो उठ कर एक बार वापिस नहीं पलटते
तुम मेरी गुजारिश को चूनौती समझना
तुम कहीं लौट के ना आ जाना

:)

रविवार, 23 अगस्त 2009

जाने कैसे लोग



जाने कैसे लोग यहाँ बसते हैं

जलता है जब घर किसीका ,हँसते हैं
समझाते हैं ज़माने की ऊँच नीच हमको
ख़ुद अपनी नियत पर जो नकाब रखतें हैं
खुश हैं अगर आप तो क्यों खुश हैं
रचते हैं कोई साजिश दिल आपका दुखाते हैं
छिपके करते हैं वार,भाग जाते हैं
जुबाँ शेर की जिगर गीद्डों का रखते हैं
जाने कैसे लोग यंहाँ बसते हैं
जलता है जब घर किसीका हँसते हैं



:)

शनिवार, 22 अगस्त 2009

यात्रा

अनंत से अनंत की ओर,पूर्णता से पूर्णता की ओर ,
सत से सत की ओर ,प्रकाश से प्रकाश की ओर ,
यात्रा -वैकल्पिक नहीं अनिवार्य
पुदगल कर्मबंधन अज्ञानजनित अनिवार्यता
कछुए की तरह मंजिल की तरफ़ या
हिरन की तरह माया के जल की तरफ़
दुर्गम -सुगम ,छांव -तपन ,मित्र -दुश्मन
समभावही है एकमात्र अवलंबन
खाते-पीते,रोते -हँसते ,सोते -जागते
बस उसका ही है सुमिरन
एक अनहद नाद की अनुभूति को प्रस्तुत हो रहा हूँ
बस युहीं अपनी अपनी यात्रा पूरी कर रहा हूँ

बुधवार, 19 अगस्त 2009

जिंदगी जब ठहराव होती है

जिंदगी जब ठहराव होती है
हर सुबह शाम की बात होती है
बहुत खामोश हो जाता है जब सारा आलम
तब खुद से खुद की बात होती है
युहीं खो जाती हो तुम जब पास हो कर भी
मुझे भी एक गुमशुदा की तलाश होती है
जब भी हो जाता हूँ उदास हँसते हँसते
यारों में तेरी बेवफाई की बात होती है
जब भी आता है सावन पे प्यार मुझको
दिल के हर कोने में बगावत की आवाज होती है
जब भी देखता हूँ फूलों को मुस्कुराते हुए
किताब में रखे एक सूखे हुए फूल की याद आती है
माना की इस जहाँ में है कोई नहीं अपना
मगर फिर भी
हर रोज किसी के आने की आस होती है

सोमवार, 17 अगस्त 2009

उफ़, ये क्या हो गया

उफ़ ये क्या हो गया
बातों बातों में इजहार हो गया
अब कैसे मिलाऊंगा मैं निगाहें
तेरा साया तक शर्मसार हो गया
आँख खुली तो तुम्हें आगोश में पाया
मेरा जीवन फूलों की कतार हो गया
तेरी चाहत बस युहीं बरकरार रहे
मुझे खुदा पे एतबार हो गया

शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

थके हुए पाँव

बालू रेत पर
थके हुए पाँव का
अक्स भी ऐसा ही उभरता है
थका हुआ ,बोझिल सा
एक समग्र और लक्ष्य भेदी जीवन का
यही तो परिणाम है
एक थकान
वरना बालू की रेत पर
हवा के झोंके से गुजर जाते
और लहरों से अठखेलिया करते

गुरुवार, 13 अगस्त 2009

मन बंजारा

अपनों की बस्ती थी फिर भी
मन बंजारा हो गया
जिस भी गाँव रुके हम
वो ही प्यारा हो गया
अपनों से दो मीठे बोल
सुनने को मन तरस गया
अपनी आँखों का हर सावन
गेरों के कंधो पर बरस गया
जब कभी दिखलाया है मुझसे
बेगानों ने अपनापन
अनायास चुभ गया है मुझको अपनों का बेगानापन
~विपिन बिहारी गोयल

बुधवार, 12 अगस्त 2009

ज़िन्दगी गाँव है

धूप है छांव है
ज़िन्दगी गाँव है
तेज धूप का सफ़र
और थके पाँव है
केवट सी जिंदगी
रोजगार नावं है
कोयल की कुहू है
कौवे की कांव है
हार जीत का फेंसला
खेल है दांव है
जिन्दगी गाँव है

विपिन बिहारी गोयल

--
Peace and Love

मंगलवार, 11 अगस्त 2009

प्रणय का मूक निवेदन

मुझे तुम्हारे घर के सामने लगे

बैगनी रंग के फूलों वाले पेड से

प्यार हो गया है

एक दिन मैं उधर से

गुजर रहा था

अचानक हवा का

तेज झोंका आया

और ढेर सारे बैंगनी फूल

मेरे कदमों मैं बिछ गये

कह कर तो सभी करते हैं

पर प्रणय का ऐसा मूक निवेदन

कहीं देखा है तुमने ।

-विपिन बिहारी गोयल

सोमवार, 10 अगस्त 2009

जो जैसा चल रहा था चलने देते


जो जैसा चल रहा था चलने देते


गलतफहमियों का दाय्ररा बढ्ने देते


तो ही अच्छा था ।


दिल को बहलाने का बहाना तो था


सतरंगे सपनों का खजाना तो था ।


कुछ कह कर हमने कुछ खो दिया


कितनी सादगी से तुमने दिल तोड दिया


उम्र भर भटकने को तन्हां छॉड दिया ।


-विपिन बिहारी गोयल

मंगलवार, 4 अगस्त 2009

तेज धूप का सफर

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तेज़ धूप का सफ़र पर्ल संस्थान जोधपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक से साभार

सर्वाधिकार सुरक्षित© लेखक-विपिन बिहारी गोयल


शनिवार, 1 अगस्त 2009

मन बंजारा

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तेज़ धूप का सफ़र पर्ल संस्थान जोधपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक से साभार

सर्वाधिकार सुरक्षित© लेखक-विपिन बिहारी गोयल