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मंगलवार, 20 अक्तूबर 2009

अपने हिस्से का सूरज

 मैंने तुमसे मुठ्ठी भर प्रकाश माँगा था
और बदले तुम मेरे अन्धेरों पे  
सुहानुभुती मैं दो शब्द बोलने लगे  
अच्छा तो नहीं लगा  
पर फिर भी मैंने कृतज्ञता प्रगट की  
और मैं कर भी क्या सकता था  
तुम्हें अपना समझ के कुछ मागाँ था  
गैरों के आगे भला कैसे हाथ फैलाता 
मेरा फैला हुआ हाथ लौटता  
इससे पहले वहाँ अजनबियों की एक भीड़ लग गयी  
सब अपने हिस्से का सूरज मुझे दे देना चाहते थे  
पर मैंने अपना हाथ खींच लिया  
उनसे किस मुहँ से कुछ लेता  
आज तक तो अपना सब कुछ तुमको देता आया था








14 टिप्‍पणियां:

  1. आज तक तो अपना सब कुछ तुमको देता आया था nice

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  2. gair hi apne hote hain......jinhe sabkuch dete jate hain,we gair hote hain
    .....bahut hi achhi rachna

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  3. उनसे किस मुहँ से कुछ लेता
    आज तक तो अपना सब कुछ तुमको देता आया था ....

    कभी कभी ऐसा समय आ जाता है ........... पर इंसान जाग जाता है ऐसे लम्हों में ....

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  4. मैंने तुमसे मुठ्ठी भर प्रकाश माँगा था
    और बदले तुम मेरे अन्धेरों पे
    सुहानुभुती मैं दो शब्द बोलने लगे

    बहुत ही बेहतरीन प्रस्‍तुति, आभार

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  5. इस बार तो मैं निःशब्द हो गया हूँ।

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  6. इससे पहले वहाँ अजनबियों की एक भीड़ लग गयी
    सब अपने हिस्से का सूरज मुझे दे देना चाहते थे
    पर मैंने अपना हाथ खींच लिया
    उनसे किस मुहँ से कुछ लेता
    आज तक तो अपना सब कुछ तुमको देता आया था


    waah lajwaab panktiyaa ...!!

    Bahut hi sunder bhav abhivyakti .....!!

    .Choo gayi ....!!

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  7. तुम्हें अपना समझ के कुछ मागाँ था
    गैरों के आगे भला कैसे हाथ फैलाता
    bahut sundar line

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  8. आपकी रचना भावपूर्ण और सुन्दर है। शायद मेरे पास शब्द कम हों किन्तु आप
    अपनी बात मेरे दिल तक पहुँचाने में सफ़ल रहे हैं।

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  9. बहुत सुंदर कविता । पर आखरी पंक्ति अगर यूं होती
    आज तक अपना सब कुछ तुमसे ही तो लेता आया था ।

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  10. उनसे किस मुहँ से कुछ लेता
    आज तक तो अपना सब कुछ तुमको देता आया था

    जिनकी खुशियों के लिए अपनी खुशियों को जेहेन में तक न आने दिया उनके व्दार निराश होना बेहद दर्दनाक होता है
    सुन्दर

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  11. के बारे में महान पोस्ट "अपने हिस्से का सूरज"

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