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मंगलवार, 15 सितंबर 2009

उसकी क्या खता है

खुद ही से पूछ कर हँसता है रोता है 
क्या कोई शख्स इतना भी तन्हॉ होता है 
पेड़ की डाली को समझ कर बाजू 
हौले से छूता है कस के पकड़ता है 
रोक कर राह चलते से पूछता है साथ दोगे 
मायूस चेहरा लिये खाली आखों से तकता है 
बिछे है कालीन और गुदाज गद्दे भी  
रातभर फिर भी वो करवटें बदलता है  
चलो छोड़ो दूसरों को तुम्ही बताओं  
क्यों मुहँ मोड़ लिया उसकी क्या खता है

9 टिप्‍पणियां:

  1. वाह बहुत सुन्दर रचना.....बहुत खुब

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  2. VAAH ...... TANHAAI KA ANOKHA EHSAAS JAGAAYA HAI IS RACHNA MEIN .... BAHOOT KHOOB LIKHA HAI ...

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  3. खुद ही से पूछ कर हँसता है रोता है
    क्या कोई शख्स इतना भी तन्हॉ होता है !
    badi hi marmik panktiya hain badhai !

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  4. खुद ही से पूछ कर हँसता है रोता है
    क्या कोई शख्स इतना भी तन्हॉ होता है
    hota hai n..........bahut achhi bhawna

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  5. Apne jo kaha hai, ye bahut bada sach hai.
    Main ismein toda aur likhta hun-
    इस भीड़ में इक इन्सां को, अकेले चलते देखा है।
    स्वार्थवश या कभी स्वयमेव, मैंने,
    हर शख्स को, बदलते देखा है॥

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  6. Namaskar Goyal jee
    Mai to apne Aap is layak nahi Samjhhta ki Aap ki kavita pe comment karu lekin padne ke bad Aap ko likhe bina raha bhi nahi jata so ye gustakhi kar raha hu .....
    leki phir ek samasya hai ki kis kis kavita pe comment karu .to socha kisi ek pe hi kar du Aap khud se samajh jayenge meri bhavnao ko .kavi to hote hi hai bhavnao ke kadrdan.....

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