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सोमवार, 21 सितंबर 2009

क्यों भूल जाऊँ मैं

स्मृति के दंश, पीड़ा ,छटपटाहट
और तुम्हारा खिलखिलाना
काश भूल जाऊँ मैं
अनभिज्ञता, उपहास , ग्लानि बोध
और तुम्हारा मुझसे नज़रें चुराना
काश भूल जाऊँ मैं
दु:स्साहस , आलोचनाएं , आत्म प्रवंचना
और तुम्हारा शर्म से झुका सिर
काश भूल जाऊँ मैं
बस याद रहे
वो शाम का धुँघलका
गाँव की पगडंडी पर
गाय बकरियों के धर लौटते झुँड
उनके खुर से उड़ी घूल के बीच
तुम्हारा मुझसे टकराना
और आँचल के छोर को ,
दाँतों में दबाकर सकुचाना शरमाना
क्यों भूल जाऊँ मैं
स्पर्धाएँ , चुनौतियाँ , जयमाला
और तुम्हारे गर्व से दिपदिपाना
क्यों भूल जाऊँ मैं
ज्ञान , वैभव , सम्मान चारों दिक्
और तुम्हारा सहज समर्पण
क्यों भूल जाऊँ मैं
विरह वेदना, प्यार की अग्नि परीक्षा
और तुम्हारा खरा उतरना
क्यों भूल जाऊँ मैं


6 टिप्‍पणियां:

  1. ज्ञान , वैभव , सम्मान चारों दिक्
    और तुम्हारा सहज समर्पण
    क्यों भूल जाऊँ मैं
    विरह वेदना, प्यार की अग्नि परीक्षा
    और तुम्हारा खरा उतरना
    क्यों भूल जाऊँ मैं

    मन को मोह लिया आपकी यह पंक्तियाँ.....बहुत बहुत आभार......आप बेहद सुन्दर लिखते है ....

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  2. प्यारी यादें !! सिर्फ याद ही कर सकते है !
    aabhaar

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  3. विरह वेदना, प्यार की अग्नि परीक्षा
    और तुम्हारा खरा उतरना
    क्यों भूल जाऊँ मैं....
    lajawaab ......... seedhe dil mein utar gayee ... bahoot hi bhaavpoorn rachna ...

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  4. क्यों भूल जाऊ मैं
    वाकई भूलने की भी क्या जरुरत है
    कविता मुझे तो कविता जैसी ही लगी
    आप शायद पहली बार मेरे ब्लॉग पर पधारे थे ,आपका स्वागत है और एक अनुरोध कि मेरे ब्लॉग पर बड़ी तपस्या से अर्जित ज्ञान मैंने परोसा है ,आप यदा कदा उसे पढ़े और उपयोग भी करें भले टिप्पडी न करें ,अनेक लोग मुझसे दवा के बारे में फोन पर पूछते हैं [ब्लॉग पढ़ कर ]मगर टिप्पडी नहीं करते ,मुझे यह सोच कर बड़ी संतुष्टि होती है कि लोग स्वस्थ हो रहे हैं और मेरी तपस्या सफल हो रही है

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